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कविता

चमकीले नगीनों की तरह पड़े रहते हैं

कलावंती


दुख और सुख मेरे सामने
मैं
हमेशा
दुख उठा लाती हूँ अनजाने नहीं
जान-बूझकर
कभी नहीं हो पाती दुनियादार
थोड़े से प्यार के बदले
दे आती हूँ ढेरों अधिकार
कुछ भी चुनने की स्वतंत्रता है
पर ताप उठा लाती हूँ शीत के बजाय
पूर्णिमा के बजाय चुनती हूँ अमावस
छूटता है पावस
पडा रहता है काँच और हीरा पास पास
हमेशा काँच उठा लेती हूँ
और खुद को लहूलुहान कर लेती हूँ
कुछ अलग सा दीखने की जिद है क्या
यह या हर पत्थर को हीरा
बना लेने का आत्मविश्वास!

 


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हिंदी समय में कलावंती की रचनाएँ